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________________ १५५ लौ. अनु० की संख्या आवाज फैला दी । जैन आगम साहित्य में ऐसे अन्य भी दृष्टान्त मिल सकते हैं। "श्री भगवती सूत्र के १५ वें शतक में गोसाला ने भगवान् महावीर से विरोध कर स्वयं तीर्थकर हो बैठा था। परन्तु उसने अपनी अन्तिमाऽवस्था में अपने अनुयायियों को बुला कर सबके आगे सत्य प्रकट कर दिया था कि मैं वस्तुतः तीर्थकर नहीं किन्तु एक श्रमण घाती हूँ। मेरे मरने के बाद मेरे शरीर एवं पैरों को मजबूत मूंज के रस्से से बाँध इस स्वस्तिका नगरी के मुख्य मुख्य रास्तों में मुझको घुमाना और कहना कि यह गोसाला तीर्थङ्कर नहीं पर श्रमण घाती छदमस्थ है इत्यादि । गोसाला के काल करने पर उनके अनुयायियों ने सोचा कि वास्तव में तो गोसाला मिथ्यात्वी है, पर अपन लोगों ने तो इन्हें तीर्थकर मान लिया था। अत: अब इनके मृत शरीर की बेइज्जती करना, अपने लिए लज्जा की बात है। इस कारण उन्होंने उस मकान का (जिसमें गोसाला था) दरवाजा बन्द कर एक लकड़ी से स्वस्तिका का अवलोकन कर उस मकान के अन्दर गोसाला के कहने के अनुकूल पैर के रस्सा बाँध घुमाया। और धीरे धीरे शब्दों में वही पूर्व गोसाला कथित वाक्य कहा । इस प्रकार जैसे गोसाला के भक्तों ने एक मकान में स्वस्तिका नगरी मान ली थी, वैसे ही लौकाशाह के भक्तों ने भी एक ही गली को भारत मान लिया हो तो यह बात कोई असंभव नहीं। इसी प्रकार श्री० वा० मो० शाह का अनुकरण संतवालजी, मणिलालजी, अमोलखऋषिजी और विनयर्षिजी ने भी किया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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