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प्रकरण उनीसा
१४८ भ्रमण करना तो स्वतः कल्पित सिद्ध है । तथा लौकाशाह जिस समय विद्यमान थे, उस समय बसे हुए जयपुर की कथा तो दूर रही, किन्तु जयपुर बसाने की सामग्री का भी कहीं पता नहीं था। क्योंकि लौंकाशाह का समय तो विक्रम की सोलहवीं शताब्दी है और जयपुर को महाराज सवाई जयसिंह ने विक्रम की अठारवीं शताब्दी में आबाद किया था। फिर समझ में नहीं आता है कि जब लौंकाशाह के दो सौ २०० वर्ष बाद जयपुर बसा, तो वहाँ आकर लौकाशाह का देहान्त कैसे हुआ । बस ! आपकी ऐसी "तत्वभरी (1) या निःसार" कल्पनाओं से शिक्षित समुदाय क्या समझता होगा ? स्वयं सोच लें।
वास्तव में सत्य बात यह है कि लौकाशाह ने अपना नया मत लीबड़ी काठियावाड़ में स्थापित किया, और उस वक्त आप खूब वृद्ध और अपंग थे । अतः कहीं भी भ्रमण नहीं कर सके। अन्तिम समय में शा० भाणादि ३ मनुष्य आपको आकर मिले, वे गुरु बिना स्वयं वेश धारण कर साधु बन गये थे। लौंकाशाह का देहान्त हो जाने के बाद भी ३०-४० वर्ष तक उन्होंने काठियावाड़ को नहीं छोड़ा। बाद गुजरात में मूर्ति पूजकों का बड़ा. जोर था, अतः वहाँ तो भ्रमण कर वे इसका ( मूर्ति पूजा का) विरोध कर नहीं सकते थे। तदर्थ लाचार हो जहाँ जैन यतियों का विशेष आना जाना नहीं था ऐसे शुष्क एवं धर्मोपदेश रहित मारवाड़ादि देशों में उन्होंने अपना विषैला प्रचार प्रारम्भ किया,
और भोली-भाली भद्रिक जनता को स्वचंगुल में फंसाना शुरू किया। इस क्रम से वि० सं० १५७५ में तो लौकाऽनुयायी वे साधु मारवाड़ में आए, और वि० सं० १५८० में नागोर के
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