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क्या लौं० ध० प० दिया था?
और न लौकाशाह ने उसे उपदेश दिया । पाटण सूरत आदि के संघ न तो अहमदाबाद गए और न उपदेशार्थ लौकाशाह की सेवा में सम्मिलित हुए। जब ३५० वर्ष पहले के लिखित इतिहास में जिन बातों की गन्ध तक नहीं फिर समझ में नहीं आता कि इन विख्यात विद्वानों (!) ने ऐसा षड्यन्त्र रच बिचारे भोले भाले स्थानकमार्गियों को यह धोखा क्यों दिया है ?
अब आप यह भी देख लीजिये कि स्वयं लौकाशाह के अनुयायी इस विषय में क्या कहते हैं:--उदाहरणार्थ, यति भानुचन्द्र लौकागच्छीय वि० सं० १५७८ । " हाटउ बहठो दे उपदेश, सांभली यति गण करई कलेस । संघनो लोक पण पखियो थयो, सा लुं को तव लीवडीई गयो। लखमसी हिव तिहां छड़ कारभारी, सा लुंकानो थयो सहचारी। अमारा राज्यि में उपदेश करो, दया धरम छे सहु थी खरो ॥
"दया धर्म चौपाई" यह सं० १५७८ अर्थात् लौकाशाह के बाद ४० वर्ष का लेख जो खास लौकाशाह के मताऽनुयायी का है, इसमें न तो अहमदाबाद में पाटण के किसी लखमसी का आना लिखा है, और न सूरत आदि के चारों संघ आए हैं। इस हालत में हम वा० मो० शाह या संतबालजी के कहने पर कैसे विश्वास करें कि लोकाशाह ने किन्हीं संघपतियों को उपदेश दिया था ?। जरा सोचिये।
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