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प्रकरण सत्रहवाँ
१३४ सुनने को आते थे। यह बात यतियों को मालूम हुई और यति लोगों ने संघपतियों को कहा कि संघ खर्चे से तंग होगया है । वास्ते संघ को रवाना करना चाहिए, इस पर संघपतियोंने कहा कि अभी वर्षा बहुत हुई है, अतः जीवोत्पत्ति भी प्रचुर परिमाण में हुई है, तदर्थ यहाँ से संघ जा नहीं सकते, इत्यादि । तब यतियों ने कहा कि ऐसा धर्म तुम को किसने बताया, धर्म के कार्य में कुछ हिंसा नहीं गिनी जाती है, इत्यादि । आगे आप लिखते हैं कि___लौकाशाह ने अहमदाबाद में जो उपदेश किया था, उसके अन्तर्गत लौकाशाह ने कई सूत्रों को भी बताया था कि श्री भगवतीसूत्र, आचारांगसूत्र प्रश्नव्याकरणादि किन्हीं सूत्रों में मूर्चि पूजा का उल्लेख नहीं है। आनंद कामदेव श्रादि बहुत से भावक हुए पर किसी ने भी मूर्ति पूजा नहीं की । इस प्रकार वा० मो० शाह ने जो कल्पित उद्धरण अपनी नोंध में रक्खा है उसी का अनुकरण स्वामी सन्तबालजी ने अपनी धर्मप्राण लौकाशाह नामक लेखमाला में कुछ विशेषों के साथ किया है । परन्तु इन बातों में सिवाय मन: कल्पना के और विशेष तथ्य न होने से, किसी ने इन पर विशेष लक्ष्य ही नहीं दिया, तथाच अन्त तो गत्वा हमारे स्था० साधु मणिलालली ने “प्रमुवीर पटावली" लिख पूर्वोक्त दोनों लेखकों के लेख को मिथ्या ठहरा दिया, वह भी केवल इनकी तरह कल्पना मात्र से ही नहीं अपितु वि० सं० १६३६ के लिखे लौकाशाह के जीवन के आधार पर, उससे पाया जाता है कि "लौकाशाह ने न तो गृहस्थाऽवस्था में किसी के पास विद्याऽभ्यास किया और न शाखों का पठन पाठन तथा उपदेश कर्म ही किया। उनके पास न तो पाटण का लखमसी आया
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