SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण चौदहवाँ ११४ जिनेश्वरदेवनी प्रतिमानी स्थापना अने तेनी प्रवृति थी घणा जैनों जैनेत्तर थता अटक्या ; श्रने तेम करवामाँ श्रे प्राचार्यों से जैन समाज पर महान् उपकार कयों छे प्रेम करवामां जरा श्रे अतिशय युक्ति नथी"। इस पर निर्पक्ष मुमुक्षुओं को विचार करना चाहिये कि भगवान महावीर के बाद ९८० वर्ष में श्री देवडगणि क्षमाश्रमणजी ने जैन सूत्रों को पुस्तकारूद किया । इस समय तक सुविहित प्राचार्यों का होना स्वीकार कर लिया। क्योंकि वे सूत्र श्वेताम्बर समुदाय के तीनों फिरके मान रहे हैं अर्थात् इन सूत्रों पर आज शासन ही चल रहा है। इस समय के बाद शिथलाचार और मूर्तियों का प्रचलित होना स्थानकवासी समाज स्वीकार करता है। पर ज्ञान के प्रकाश में स्था० साधु हर्षचन्दजी करीबन २५८ वर्ष और बढ़कर महावीर से ८२२ वर्ष में शिथिलाचार और मूर्तियों के दर्शन कर रहे हैं। तब भाई वाड़ीलालशाह की शोधखोल ४०० वर्ष आगे बढ़कर भगवान महावीर के बाद ६०० वर्ष में शिथलाचारी आचार्यों द्वारा मूर्तियों की स्थापना का स्वप्ना देख रहा हैं । पर यह लिखते समय आप अपने पूर्वजों की कल्पना को बिलकुल भूल ही गये कि भगवान महावीर के ६०० वर्षों में शिथलाचार समझा जायगा तो ३२ सुत्र भी शिथलाचारियों के लिखे हुए समझे जायँगे ? फिर भी ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। इधर पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वानों की शोधखोल ने प्राचीनता के इतने साधन उपस्थित कर दिये कि हमारे स्थानकवासी मुनियों को अपने पूर्वजों की मान्यताओं में परिवर्तन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy