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लोकाशाह का सिद्धान्त अपना काम चल सकेगा ? सामायिक प्रतिक्रमण न हो तो आपके मत में हम साधु कैसे होसके ? बिना साधु धर्म चीरं. जीव बनता नहीं, इत्यादि समझौते से और कुछ निजके शान्त विचारों से लौकाशाह ने अपनी पिछली टाइम में अपने संकुचित विचारों को बदल कुछ उदात्त विचार धारण किए, तत्पश्चात् भाण आदि लौंका के अनुयायियों ने भी धोरे धीरे समग्र क्रियाओं को मान देना शुरू किया।
और भानुचन्द्र के समय तक तो, जो क्रियाएँ लौंकाशाह के समय में नहीं मानी जाती थीं वे सब भी मानी जाने लगी, ऐसा उनकी दया धर्म चौपाई से विदित होता है। भानुचंद्र के भनन्तर तो लौकाऽनुयायी मूर्ति को भी मानने लग गए थे। इसी से तो स्वामी मणिलालजी ने अपनी “प्रभुवीर पटावली" पृष्ठ १८१ में लिखा है कि-"वि० सं० १६०८ में लौकामत में गोटाला (अव्यवस्था) होने लगा। बस इस गोटाले से संकेत मूर्ति पूजा-प्रतिष्ठा की ओर ही है । अनन्तर लोकाशाह का मूल मत टूटने लग गया, और वे अपने उपाश्रयों में मूर्तियों की यथावत् स्थापना, और सामायिकादि क्रियाएँ करने लग गए, तथा क्रिया-काल में स्थापनाजी आदि भी रखने लग गए जो अद्याषधि विद्यमान है । इसका पूरा विवेचन चौदहवें प्रकरण में हैं, पाठक उसे वहां देखने का कष्ट करें।
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