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प्रकरण तेरहवाँ
१०६ यदि कडुपाशाह के समय सामायिकादि के खिलाफ किसी की मान्यता नहीं होतो तो फिर यह नियम बनाने की कोई आवश्यकता शेष नहीं रह जाती । परन्तु जब यह नियम बनाया है तो यह मानना पड़ेगा कि कडुअाशाह के समय सामायिकादि क्रियाओं का विरोध जरूर हुआ था। और यही लौकाशाह का मूल सिद्धान्त था । लौकाशाह के अनन्तर लौं का० के अनुयायी ३२ सूत्र मानने लगे, परन्तु ३२ सूत्रों में तो किसी भी स्थान पर श्रावक के सामायिक, पौसहादि की विशेष विधि नहीं है । इन ३२ सूत्र में १ आवश्यक सूत्र हैं। पर इनमें श्रावक के प्रतिक्रमण का नाम निशान तक भी नहीं है । ऐसी दशा में स्वयं लौकाशाह ने और उसके बाद कुछ वर्षों तक उसके अनुयायी वर्ग ने यदि इन क्रियाओं को न किया हो तो संभव है। परन्तु जब लवजी ने आगे चल कर अपना सिद्धान्त बदल दिया, तब लौकाशाह को मान्यता और स्थानकमार्गियों की मान्यता में आकाश पृथ्वी का अन्तर आगया, फिर समझ में नहीं आता है कि सिद्धान्तों के अन्दर वैषम्य होने पर भी स्थानकमार्गी समाज अपने को लौकाशाह का अनुयायी क्योंकर मानता है । ___ वस्तुतः लौकाशाह ने अपने अपमान के कारण क्रुद्ध हो, सब क्रिया माधु, तथा जैनागमों को अस्वीकार किया, परन्तु उस दशा में उसने अपना अलग पक्ष स्थिर नहीं किया। अपितु जब उसका क्रोध शान्त हुआ होगा, तब यह बिचारा होगा कि मैंने यह क्या बुरा काम किया। तथा भाणादि तीनों मनुष्यों ने भी उसे समझाया होगा कि आपने यह क्या धुरा काम किया, क्या सामायिकादि धर्म क्रियाओं के किए बिना
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