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________________ प्रकरण बारहवाँ ९२ जैन शासन के खास अंग हैं इन्हें भी नहीं मानते । ऐसी २ घृणित और गन्दी उकेरियों खोदने वालों में, या तो स्वयं पूजवाने की प्रबल आकांक्षा है, या उत्पादकों के अभिमान की अभिभावना है । यदि ऐसा न होता तो ऐसा दुःसाहस कभी नहीं किया जाता । यहाँ पर तो लौकाशाद के विषय में ही हम कुछ लिखेंगे कि लोकाशाह के नये मत निकालने में क्या कारण पैदा हुआ था । atarraata यति भानुचन्द्रजी वि० सं० १५७८ में लिखत ह कि: “धर्म सुणवा जावई पोसाल, पूजा सामायिक करई त्रिकाल । सांभई साधु चार, पण नवि पेखइ यति हिं लगर । कहे लंको तमें पभणो खरडं, वीर आणा चालो परडं । कहड़ यति अम्हथी रहै धरम, तमेकिम जाणो तेहनो मर्म । पांच व सेवता तम्हे, सिखामण देवी सहीगमे ॥ सा को कहई दयाई धर्म, तमे तो वाहिओ हिंसा अधर्म । फंडा किंहा हिंसा जोयं, यति सम दया न पालई कोय । साभुं को मान ई अपमान, पौसालई जावा पच्चखांण । ठाम ठाम दयाई धर्म कह्यो, साचो भेद आज हि लो || हाट बेठो दे उपदेश, सांभला यति गण करई कलेस । "दयाधर्मं चौपाई " X X X "लुका, यतियों के उपासरे पुस्तक लिखता था, उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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