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प्रकरण नौयाँ पूर्ववत् स्थिर हो रही। हाँ ! इन्होंने जहां २श्री पार्श्वचंद्रसूरि कृत टब्बा में मूर्ति समर्थक लेख पढ़ा, उसे बदल कर नया अर्थ गढ़ दिया। क्योंकि धर्मसिंहजी और लवजी को भी तत्वतः कुछ ज्ञान नहीं था, यदि होता तो वे सूत्रों के अर्थ को न बदल कर, जैसे लौंकाऽनुयायियों ने ४५ सूत्रों में ३२ ही को मान्य रक्खा, तद्वत् ये भी ३२ में से मूर्ति समर्थक सूत्रों का बहिष्कार कर शेष सूत्रों को ही मान्य रखते तो इस प्रकार टब्बा को बदलना, और माया सहित मिथ्यात्व सेवन करना नहीं पड़ता।
खैर, श्री पार्श्वचंद्रसूरि ने जो टब्बा बनाया वह पूर्व टीकाओं के आधार पर ही बनाया था। जो भाव टीका में था ठीक वही सूरीजी के टब्बा में बतलाया। इस तरह टीकाऽनुपूर्वी टब्बा को कुछ काल तक तो अक्षुण्ण मान मिलता रहा, पर बाद में जब नये मत के प्रवर्तक निकले और इन्होंने मूर्तिपूजा का प्रबल विरोध करने के साथ मूर्तिविषयक टब्बा को भी बदल कर "कहां साधु, कहाँ ज्ञान, कहाँ छदमस्थ तीर्थकरादि" इत्यादि अर्थ कर दिया। तब से लौकाऽनुयायी तो श्री पार्श्वचंद्रसूरिकृत टब्बा को, और धर्मसिंह-लवजीअनुयायी, तथा स्थानकमार्गी, धर्मसिंह कृत टब्बा को मानते रहे हैं। पर स्वामी अमोलखर्षिजी को तो यह भी स्वीकार नहीं हुआ, उन्होंने इस परिष्कृत टब्बा को पुनः परिष्कृत कर हाल ही में ३२ सत्रों का भाषाऽनुवाद किया है।
जैनियों में यह मान्यता सदा से चली आई है कि जो कोई प्राचीन मूल सूत्रों में एकाध मात्रा को भी न्यूनाधिक करे, वह अनंत संसारी होता है, पर हमारे ऋषिजी ने ३२ सूत्रों का भाषा ऽनुवाद करते समय अर्थ में फेरफार किया सो तो किया हो, पर
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