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क्या लौं• ३२ सूत्र लिखे थे के अवगुणवाद नहीं बोलना। यदि तुम इन तीनों बातों की प्रतिज्ञा लो ! तो मैं तुम्हें मूल सूत्रों पर गुजराती टग्या ( भाषान्तर ) बना दूं। लौकाऽनुयायियों ने इसे स्वीकार किया, तब सूरिजी क्रमशः इन्हें टब्बा बना २ कर सूत्र देते गए, इस प्रकार टब्बा सहित ३२ सूत्र तो लौंकों के हाथ लग गए, परन्तु बाद में वे ( लौकाऽनुयायी) अपनी पूर्व प्रतिज्ञा से भ्रष्ट होगए, उन्हें अपनी प्रतिज्ञा से विचलित देख सूरिजी ने शेष सूत्र टब्बा बना के उन्हें देना बन्द कर दिया। इस प्रकार जो ३२ सूत्र लौंकों के हाथ लग गए सो लग गए और वे इन्हें ही मानने लगे। इन बत्तीस सूत्रों में मूर्ति विषयक पाठ है या नहीं ? यह ज्ञान लौंकों को उस समय बिलकुल नहीं था । यदि होता तो वे ३२ सूत्र भी कदापि नहीं मानते। क्योंकि जैसे ४५ सूत्रों में से ३२ सूत्रों को इन्होंने पृथक् किया, वैसे ही ३२ में से भी मूर्तिपूजा वाले सूत्र जुदे कर देते, परन्तु मजा तो यह रहा कि वे ३२ सूत्रों का मर्म जान नहीं सके, और जितने सूत्र सूरिजी से प्राप्त हुए उन्हें ज्यों का त्यों मानते रहे । परन्तु काल क्रमात् इनकी हठवादिता धीरे धीरे दूर होगई और लौंकाशाह के अनुयायो भी मूर्तिपूजा मानने लगे। तथा पंचांगी सहित सब सत्रों को भी मान्य दृष्टि से देखने लगे। इस तरह यह सवाल तो यहीं हल हो गया।
अनन्तर धर्मसिंहजी और लवजी नामक साधुनों ने लौंकोंका विरोध कर "ढूंढिया पन्थ" नाम से नया मत निकाला, और जोरों से मूर्ति का विरोध करना शुरु किया, जो सांप्रत में भो वर्तमान हैं। पर ३२ सूत्रों की मान्यता तो इस नये मत में भी
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