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पश्चाद्दौस्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्याचेनावचने शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयं ।। ५५ ।।
यह वर्द्धमानपुर कहाँ था, इसका अभी तक कुछ निर्णय नहीं हो सका है । यह कोई बड़ा नगर था और जान पड़ता है, उस समय उसमें जैनधर्मके अनुयायियों का प्राचुर्य था। आचार्य हरिषेणने अपना बृहत् कथाकोश भी शक संवत् ८५३ में इसी वर्द्धमानपुरमें रह कर बनाया था । वे इस नगरका वर्णन इन शब्दों में करते हैं
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जैनालयव्रातविराजितान्ते चन्द्रावदातद्युतिसौधजाले कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे...
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अर्थात् जिसमें जैनमन्दिरोंका समूह था, चन्द्रमा जैसे चमकते हुए महल थे और सोनेसे परिपूर्ण जननिवास थे, ऐसा वह वर्द्धमानपुर था ।
हमारी समझमें यह कर्नाटक या पुन्नाट प्रान्तमें ही कहीं पर होगा, क्यों कि जिनसेन और हरिषेण दोनों ही पुनाट संघके आचार्य थे और नन्नराज नाम भी कर्नाटकप्रान्तीय जान पड़ता है जिनके बनवाये हुए पार्श्वनाथमन्दिरमें —— श्रीपार्श्वलयनन्नराज - वसतिमें -- यह ग्रन्थ समाप्त किया गया था। मालूम
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