SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३३) कराया है, अतएव वे एक प्रकारसे मठाधीश थे और उनके सम्प्रदायमें मन्दिर आदि बनवाना जायज था । जब वज्रनन्दि पूज्यपाद या देवनन्दिके शिष्य थे और देवनन्दि नन्दिसंघके आचार्य गिने जाते हैं, तब यदि द्राविडसंघके आचार्य वादिराज अपनी गुरुपरम्पराको नन्दिसंघका बतलाते हैं, तो ठीक ही है । आश्चर्य नहीं, जो पुन्नाटसंघ भी द्राविडसंघकी तरह नन्दिसंघकी ही एक शाखा हो । हरिवंशपुराणके कर्त्ताने पूर्वोक्त द्राविड़संघके उत्पादक व जनन्दिकी स्तुति निम्नलिखित शब्दोंमें की है-- वज्रसूरेविचारिण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः । प्रमाणं धर्मशाखाणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ॥ ३२॥ -हरिवंश, प्रथम सर्ग अर्थात् वज्राचार्यकी सहेतुक बन्धमोक्षसम्बन्धी विचारणायें धर्मशास्त्रोंके प्रवक्ता गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाणभूता हैं । अवश्य ये वज्रसूरि वज्रनन्दि ही हैं, क्योंकि देवनन्दि (पूज्यपाद ) के बाद ही इनका स्मरण किया गया है। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। ण्हतो सीयलनीरे पावं पउरं स संजेदि ॥ २७ ॥ -दर्शनसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003657
Book TitleHarivanshpuranam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy