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कराया है, अतएव वे एक प्रकारसे मठाधीश थे और उनके सम्प्रदायमें मन्दिर आदि बनवाना जायज था ।
जब वज्रनन्दि पूज्यपाद या देवनन्दिके शिष्य थे और देवनन्दि नन्दिसंघके आचार्य गिने जाते हैं, तब यदि द्राविडसंघके आचार्य वादिराज अपनी गुरुपरम्पराको नन्दिसंघका बतलाते हैं, तो ठीक ही है । आश्चर्य नहीं, जो पुन्नाटसंघ भी द्राविडसंघकी तरह नन्दिसंघकी ही एक शाखा हो । हरिवंशपुराणके कर्त्ताने पूर्वोक्त द्राविड़संघके उत्पादक व जनन्दिकी स्तुति निम्नलिखित शब्दोंमें की है--
वज्रसूरेविचारिण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः । प्रमाणं धर्मशाखाणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ॥ ३२॥
-हरिवंश, प्रथम सर्ग अर्थात् वज्राचार्यकी सहेतुक बन्धमोक्षसम्बन्धी विचारणायें धर्मशास्त्रोंके प्रवक्ता गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाणभूता हैं । अवश्य ये वज्रसूरि वज्रनन्दि ही हैं, क्योंकि देवनन्दि (पूज्यपाद ) के बाद ही इनका स्मरण किया गया है।
कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। ण्हतो सीयलनीरे पावं पउरं स संजेदि ॥ २७ ॥
-दर्शनसार
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