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या 'न्यायविनिश्चय-तात्पर्यावद्योतिनी व्याख्यानरत्नमाला' कहलाती है । इसके अन्तमें टीकाकार अपना परिचय इस प्रकार देते हैं
श्रीमत्सिंहमहीपतेः परिषदि प्रख्यातवादोन्नतिस्तर्कन्यायतमोपहोदयगिरिः सारस्वतः श्रीनिधिः । शिष्यः श्रीमतिसागरस्य, विदुषां पत्यु, स्तपः श्रीभृतां भर्तुः, सिंहपुरेश्वरो विजयते स्याद्वादविद्यापतिः ।
स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरिका उपनाम है । वे सिंहमहीपति अर्थात् चालुक्यवंशीय नरेश जयसिंहकी सभा के प्रख्यात वादी थे, तर्कन्यायके अन्धकारको भगानेवाले उदयाचल, सरस्वती के सेवक, श्रीनिधि, मतिसागरके शिष्य, विद्वानोंके पति, तपस्वियोंके भर्त्ता और नामक स्थानके राजा थे । यह स्थान उन्हें जागीरके तौरपर मिला हुआ होगा अपने दादागुरु श्रीपालदेवको भी
सिंहपुरेश्वर अर्थात् सिंहपुर
।
इन्हीं वादिराजसूरिने 'सिंहपुराधीश' कहा है
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सूरिः स्वयं सिंहपुरैकमुख्यः श्रीपालदेवो नयवर्त्मशाली ।
- पार्श्वनाथचरित
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सिंहपुरैकमुख्य ’
या
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