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________________ ( २८ ) श्रीजैनसारस्वतपुण्यतीर्थनित्यावगाहामलबुद्धिसत्त्वैः । प्रसिद्धभागी मुनिपुंगवेन्द्रैः श्रीनन्दिसंघोऽस्ति निवर्हितांहः || इससे ऐसा जान पड़ता है कि जिस तरह वीरसेन - जिनसेनस्वामी पंचस्तूपान्वयी थे, फिर भी गुणभद्र स्वामीने उनका केवल सेनसंघका कहकर उल्लेख किया है, उसी प्रकार द्रविड़ संघके होने पर भी वादिराजसूरिने अपनेको नन्दिसंघका बतलाया है - द्रविडसंघकी अपेक्षा नन्दिसंघको प्रधानत दी है । संभव है कि पुंनागवृक्षमूलगणका जिस तरह एक भेद यापनीय - नन्दिसंघ था, उसी प्रकार दूसरा भेद द्राविडीय - नन्दिसंघ भी हो । इतिहासज्ञपाठक जानते हैं कि यापनीय और द्रविड़संघ दोनोंको पांच जैनाभासोंमें गिनाया हैगोपुच्छिकः श्वेतवासा द्राविड़ो यापनीयकः । निः पिच्छश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीतिताः ॥ १० ॥ —नीतिसार अर्थात् गोपुच्छिक ( काष्ठासंधी ), श्वेताम्बर, द्राविड़संघी, यापनीय और निःपिच्छ ( माथुरे - १ काष्ठासंघकी पट्टावलीमें माथुरसंघको काष्ठासंघका ही एक गच्छ माना है । इसके सिवाय काष्ठासंघके बागड़, लाट-बागड़ और नन्दितट नामके तीन गच्छ और भी हैं, जो देशभेदजन्य हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003657
Book TitleHarivanshpuranam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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