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________________ १६ स्याद्वादसिद्धि दिकी तरह वे दोनों स्वतंत्र हो जायेंगे । अतः समवायसे पहले इनमें न तो भेद ही माना जा सकता है और न अभेद ही, क्योंकि उक्त दूषण आते हैं। तथा भेदाभेद उनमें आपने स्वीकार नहीं किया तब समवायको माननेसे क्या फल है ? योग-भेदको हमने अन्योन्याभावरूप माना है अत: आत्मा और बुद्ध्यादि में स्वतंत्रपनेका प्रसंग नहीं आता ? जैन - यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि अन्योन्याभाव में भी घटपटादिकी तरह स्वतन्त्रता रहेगी वह मिट नहीं सकती । यदि वह मिट भी जाय तो अभद होनेसे उक्त नित्यताअनित्यताका दोष तदषस्थित है । योग - पृथक्ल गुणसे उनमें भेद बन जाता है अतः अभेद होनेका प्रसंग नहीं आता और न फिर उसमें उक्त दोष रहता है ? - जैन --नहीं, पृथक्त्व गुणते भेद मानने पर पूर्ववत् आत्मा, और बुद्ध्यादिमें घटादिककी तरह भेद प्रसक्त होगा ही । एक बात और है । समवायसे आत्मामें बुद्धायादिका सम्बन्ध माननेपर मुक्तजीव में भी उनका सम्बन्ध मानना पड़ेगा, क्योंकि वह व्यापक और एक है । योग - बुद्धयादि अमुक्त - प्रभव धर्म हैं, अतः मुक्तों में उनके संबन्धका प्रसंग खड़ा नहीं होसकता है ? जैन- नहीं, बुद्धयादि मुक्तप्रभव धर्म क्यों नहीं है, इसक क्या समाधान है ? क्योंकि बुद्धयादिका जनक आत्मा है औ वह मुक्त तथा अमुक्त दोनों अवस्थाओं में समान है ? अन्यथ जनकस्वभावको छोड़ने और अजनकस्वभावको ग्रहण करने आत्मा नित्यपनेका प्रभाव आवेगा । योग - बुद्धयादि अमुक्त समवेतधर्म हैं, इसलिये वे मुर प्रभव हैं - मुक्तप्रभव नहीं हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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