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________________ १ हिन्दी-सारांश अनिश्चित है। अतः उससे समवायकी सिद्धि बतलाना असंगत है । योग -समवायकी सिद्धि निम्न अनुमानसे होती है:-'इन शाखाओं में यह वृक्ष है' यह बुद्धि सम्बन्धपूर्वक है, क्योंकि वह 'इहेदं बुद्धि है । जैसे 'इस कुण्ड में यह दही है' यह बुद्धि । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'इस कुण्डमें यह दही है यह ज्ञान संयोग सम्बन्धके निमित्तसे होता है इसी प्रकार 'इन शाखाओंमें यह वृक्ष है', यह ज्ञान भी समवाय सम्बन्धपूर्वक होता है। अतः समवाय अनुमानसे सिद्ध है ? जैन-नहीं, उक्त हेतु 'इस वनमें यह आम्रादि हैं। इस ज्ञानके साथ व्यभिचारी है क्योंकि यह ज्ञान 'इहेर्द' रूप तो है किन्तु किसी अन्य सम्बन्ध-पूर्वक नहीं होता और न यौगोंने उनमें . समवाय या अन्य सम्बन्ध स्वीकार किया भी है। केवल उसे उन्होंने अन्तरालाभावपूर्वक प्रतिपादन किया है और यह प्रकट है कि अन्तरालाभाव सम्बन्ध नहीं है । अतः इस अन्तरालाभावपूर्वक होनेवाले 'इहेदं रूप ज्ञानके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी होनेसे उसके द्वारा समवायकी सिद्धि नहीं हो सकती है। ऐसी हालतमें बुद्धयादि एवं कर्तृत्वादिसे आत्मा भिन्न ही रहेगा और तब जड आत्मा धर्मकर्ता अथवा फल-भोक्ता कैसे बन सकता है ? अतः क्षणिकैकान्तकी तरह नित्यैकान्तका मानना भी निष्फल है। अपि च, आप यह बतलाइये कि समवाय क्या काम करता है ? आत्मा और बुद्धयादिमें अभेद करता है अथवा उनके भेदको मिटाता है ? अन्य विकल्प सम्भव नहीं है ? प्रथम पक्षमें बुद्धयादकी तरह आत्मा अनित्य हो जायगा अथवा आत्माकी तरह बुद्धयादि नित्य हो जायेंगे; क्योंकि दोनों अभिन्न है। दूसरे पक्षमें आत्मा और बुद्धयादिके भेद मिटनेपर घट-पटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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