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________________ स्याद्वादसिद्धि प्रायः उतने प्रौढ नहीं हैं जितने उनमें हैं और न प्रन्थका जैसा नाम है वैसा इसमें महत्वका विवेचन है-साधारण तौरसे नवपदार्थोंके मात्र लक्षणादि दिये गये हैं। अन्तःपरीक्षणपरसे यह प्रसिद्ध और प्राचीन तर्क-काव्यग्रन्धकार वादीभसिंहसूरिसे भिन्न और उत्तरवर्ती किसी दूसरे वादीभसिंहको रचना जान पड़ती है। प्रन्थके अन्तमें जो समाप्तिपुष्पिकावाक्य पाया जाता है उसमें इसे 'भट्टारक वादीभसिंहसरि' की कृति प्रकट भी किया गया है । यह रचना ७२ अनुष्ट प और १ मालिनी कुल ७३ पद्योंमें समाप्त है। रचना साधारण और औपदेशिक है और प्रायः अशुद्ध है। वि. द्वानोंको इसके साहित्यादिपर विशेष विचार करके उसके समयादिका निर्णय करना चाहिए । इस तरह प्रन्थ और ग्रन्थकारके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया गया है। आशा है इस प्रयत्नसे पाठकोंको कुछ लाभ पहुँचेगा। जैन-पुस्तक भण्डार, -दरबारीलाल कोठिया, २३ दरियागंज, देहली, (न्यायाचार्य) ७ अप्रेल १९५० PLA L LAGHARA १ 'इति श्रीभद्वारकवादीमसिंहमूरिविरचितो नवपदार्थ निश्चयः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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