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________________ सम्पादनके विषयमें प्रारम्भ और पर्यवसान सन १९४७ में श्रीयुत पं० के० भुजबलिजी शास्त्री मूडबिद्रीकी कृपासे इस ग्रन्थकी प्रतिलिपि प्राप्त हुई। उस समय मैं अन्य प्रन्थोंके सम्पादन-कार्य में लगा हुआ था और इसलिये इसे सरसरी दृष्टिले ही देख सका। इसके बाद यह कोई डेढ़ वर्ष तक वैसा ही पड़ा रहा। बादमें अवकाश मिलने पर इसे पुनः गौरसे देखा तो ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण जान पड़ा, और तब अगस्त १९४८ के अनेकान्त' वष ६, किरण ८ में 'वादीसिंह सृरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति-स्याद्वादसिद्धि' शीर्षक लेख द्वारा इस ग्रन्थका विस्तृत परिचय दिया और लिखा कि-'हम उस दिनकी प्रतीक्षामें हैं जब वादीभसिंहकी यह अमर कृति प्रकाशित होकर विद्वानोंमें अद्वितीय आदरको प्राप्त करेगी और जैनदर्शनकी गौरवमय प्रतिष्ठाको बढ़ावेगी। क्या कोई महान साहित्य-प्रेमी इसे प्रकाशित कर महत शेयका भागी बनेगा और ग्रन्थ-प्रन्थकारकी तरह अपनी उज्ज्वल कीर्तिको अमर बना जायेगा।' इसे पढ़कर श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमीने ३ नवम्बर १६४८ को हमें एक पत्र लिखा 'क्या इसकी एक ही प्रति उपलब्ध है ? जो प्रति उपलब्ध है क्या अकेली उसी परसे यह ग्रन्थ प्रकाशित किया जा सकता है ? क्या आप उसके सम्पादित कर देनेके लिये समय निकाल सकते हैं ? मैं सोचता हूँ कि यदि हो सके तो यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे छपा दिया जाय । इधर ६-७ वर्षसे ग्रन्थमालामें कोई प्रन्थ नहीं छपा।' प्रेमीजीके इस पत्रको प्राप्त कर हमने इसके सम्पादनादिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003653
Book TitleSyadvadasiddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1950
Total Pages172
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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