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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
२३ कंशनाभ, २४ कंश वर्णभ, २५ नील, २६ नीलाभास, २७ रुप, २८ रुपावभास, २६ भस्म, ३० भस्मराशी, ३१ तिल, ३२ तिल पुष्पवर्ण, ३३ दक, ३४ दक वर्ण, ३५ काय, ३६ वंध्य, ३७ इन्द्राग्नि ३८ घूमकेतु, ३६ हरि, ४० पिंगलक, ४१ बुध, ४२ शुक्र, ४३ बृहस्पति, ४४ राहु, ४५ अगस्तिक, ४६ माणवक, ४७ कामस्पर्श, ४८ धूहक, ४६ प्रमुख, ५० बिकट, ५१ विसंधि कल्प, ५२ प्रकल्प, ५३ जटाल, ५४ अरुण, ५५ अगिल, ५६ काल, ५७ महाकाल, ५८ स्वस्तिक, ५६ सौवस्तिक, ६० वर्द्धमानक, ६१ प्रलम्ब, ६२ नित्य लोक, ६३ नित्योद्योत, ६४ स्वयंप्रभ, ३५ अवभास, ६६ श्रेयस्कर, ६७ क्षेमंकर, ६८ आभंकर, ६६ प्रभंकर, ७० अरजा. ७१ विरजा, ७२ अशोक, ७३ वितशोक, ७४ विमल, ७५ वितप्त, ७६ विवत्स, ७७ विशाल, ७८ शाल, ७६ सुवृत्त, ८० अनि वृत्ति, ८१ एक जटि, ८२ द्विजटि, ८३ कर, ८४ करिक, ८५ राजा, ८६ अर्गल, ८७ पुष्पकेतु, और ८८ भावकेतु ।। ___ वर्तमान मारतीय ज्योतिष में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु, यह ग्रह माने हैं। यह देखने में आता है कि सनातन धर्म ग्रंथों में किसी वस्तु की संख्या यदि १० हजार बताई है तो बड़प्पन जताने के लिये जैन शास्त्रों में उसी को बढ़ाकर ५०-६० हजार बतलाने का प्रयास किया है। इस प्रकार संख्याओं को बढ़ा बढ़ा कर बताने की प्रतिस्पर्धा (competition) वृत्ति अनेक स्थलों में देखने में आती है जिसका विशेष वर्णन किसी अन्य लेख में करूगा। ८८ ग्रहों
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