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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
के सम्बन्ध का सूर्यप्रज्ञप्ति' 'चंद्रप्रज्ञप्ति' आदि कुछ सूत्र ग्रंथों में काफी वर्णन है, मगर जहां तक मेरा अनुभव है वर्तमान भार - तीय ज्योतिष के वर्णन और आंकड़ों का मुकाबिला किया जाय तो बहुत सी इन सूत्रों की बातें असत्य प्रमाणित हो जायेंगी । अवकाश के अनुसार इन के विषय में भी खोज शोध करके असत्य साबित होने वाली बातों पर कभी आगामी अङ्कों में लिखूंगा । प्रस्तुत लेख में मुझे केवल ग्रहों के विषय में कुछ लिखना है | ग्रह उसी आकाशीय पिण्ड को कहते हैं जो सूर्य के चौगिर्द घूमता है और उपग्रह उस पिण्ड को कहते हैं जो सूर्य्य की तरह अपनी धुरी पर भले ही घूमता हो मगर किसी दूसरे पिण्ड के चौगिर्द नहीं घूमता । जैन शास्त्रों में ग्रह नक्षत्र तारे आदि की इस प्रकार की परिभाषा अथवा इस प्रकार का कोई भेद नहीं बतलाया है । उपग्रह का तो जैन शास्त्रों में कहीं नाम भी नज़र नहीं आता, कारण दूर-दर्शक यंत्रों के अभाव में ग्रहों के चौगिर्द घूमने वाले पिण्ड उन्हें कैसे दिखाई पड़े और बिना दिखाई पड़े नाम दें भी कैसे ? जैन शास्त्रों में ८८ ग्रह बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं ।
१ अङ्गारक ( मंगल ) २ विआलक, ३ लोहिताक्ष, ४ शनैश्चर, ५ आधुनिक, ६ प्राधुनिक, ७ कण, ८ कणक, ६ कणकणक, १० कण विताणक, ११ कण संतानिक, १२ सोम, १३ सहित, १४ अश्वासन, १५ कार्योपग, १६ कच्छुरक, १७ अज करक १८ दुदभक, १६ शंख, २० शंखनाभ, २१ शंख वर्णभ, २२ कंश,
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