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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
त्रुटि नहीं रहती कि हमारी पृथ्वी पर प्रकाश करने वाला सूर्य एक ही है । पाठक वृन्द, एक सूर्य को देखते हुए भी दो सूर्यो का मानना शास्त्रों की अक्षर अक्षर सत्यता को किस हद तक प्रमाणित करता है, इसे विचार कर देख लें। श्री भाष्कराचार्य रचित एक प्राचीन ज्योतिष ग्रंथ "सूर्य सिद्धांत" के बारहवें अध्याय में हमारी इस पृथ्वी को स्पष्टतया गेन्द की तरह गोल और भ्रमण करती हुई मानी है, जैसा कि वर्तमान विज्ञान ने मान रखा है । भारतवर्ष के ज्योतिषी इसी सूर्य सिद्धान्त के आधार पर यहाँ के पञ्चाङ्ग बनाते हैं । सूर्य सिद्धान्त में भी इस पृथ्वी पर प्रकाश पहुंचाने वाला सूर्य एक ही माना है। ऐसी सूरत में दो सूर्य मानने वालों के लिये प्रत्यक्ष और ( व्यावहारिक ) आगम दोनों प्रमाणों के मुकाबले में अपनी दो सूर्य की मान्यता को साबित करने की पूरी जिम्मेवारी आ पड़ती है ।
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गतांक में मैंने यह वादा किया था कि अगले लेख में जैन शास्त्रों की वे भौगोलिक बातें, जिनमें पर्वत, समुद्र, नदी, नगर आदि का बढ़ा बढ़ा कर कल्पनातीत वर्णन किया है, बताने का प्रयास करूंगा । उसी बाढ़े के अनुसार सर्व प्रथम पर्वतों को ही लीजिये । मेरु पर्वत ६६००० योजन यानी ३६६०००००० ( उनचालीस कोटि, साठ लाख ) माइल जमीन से ऊँचा है और १००० योजन यानी ४०००००० माइल जमीन के अन्दर है और इसकी चौड़ाई १०००० योजन यानी ४००००००० माइल
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