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जैम शास्त्रों की असंगत बातें !
२५४००००० योजन की २०३२००००० माइल हुई। इस प्रकार श्रीमद्भागवत में इस पृथ्वी को २० कोटि ३२ लाख माइल का एक समतल गोलाकार भू-भाग बताया है। इस पृथ्वी पर ये द्वीप और समुद्र किस तरह बने, इसकी एक विचित्र कल्पना इन महापुरुषों ने कैसी बोधगम्य की है, उस पर हंसी आये बिना नहीं रह सकती। लिखा है कि पियवृत नाम के एक ईश्वरभक्त राजा ने सूर्य से भी बढ़ कर तेज वाला एक रथ बनाया और उससे इस पृथ्वी पर जम्बू द्वीप के चौगिर्द सात दफा चक्कर काटे। उस रथ के पहिये जहां जमीन में गड़े थे उन गट्ठों के तो समुद्र बन गये और रथ के दोनों पहियों के बीच की जमीन जो गढा बनने से बच गई थी, उसके द्वीप बन गये। बलिहारी है ऐसे रथ की जिसने समुद्रहीन-संसार को अपने पहियों से गढ़ बना कर सजल कर दिया। ऐसी ऐसी हवाई कल्पनाएँ इन सर्वज्ञों ने किस उद्देश्य से की, यह समझने की चेष्टा करने पर भी समझ में नहीं आता।
सनातन धर्म के ग्रंथों में इन द्वीप-समुद्रों पर प्रकाश पहुंचाने वाला सूर्य एक ही माना गया है मगर जैन शास्त्रों में जहाँ तक मनुष्यों की आबादी का सम्बन्ध है, १३२ सूर्य माने गये हैं। जम्बू द्वीप में प्रकाश का काम करने वाले केवल दो सूर्य माने हैं। वर्तमान दक्षिण और उत्तर ध्र वों की तरफ तीन तीन महीनों तक एक ही सूर्य लगातार दिखाई देता है, एक क्षण भी ओझल नहीं होता। इससे यह बात साबित होने में कोई
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