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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
यह श्लोक, सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतार ग्रन्थ में भी पाया जाता है इसलिये श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार भी शास्त्रका यही लक्षण कहलाया । अब यहां विचारणीय बात इतनी और है कि इनमें से बहुतसे विशेषण ऐसे हैं जिनका सद्भाव या अभाव किसी शास्त्रमें जानना मुश्किल है । अमुक पुस्तक आप्त वचन है और अमुक नहीं इसका निर्णय कौन करे ? इसी तरह सर्वहितैषिता, यथार्थ प्रतिपादकता मिथ्यामार्ग नाशकता भी किसी भी शास्त्र में विवादास्पद हो सकते हैं । ये सब ऐसी बातें हैं जो शास्त्रोंसे नहीं, किन्तु तर्क [ मुक्तिप्रमाण ] से ही सिद्ध हो सकती हैं। कहने को तो सभी शास्त्र, अपनेको उपर्युक्त सबगुण सम्पन्न बताते हैं । इसलिये किसको सच्चा माना जाय इसका उत्तर तर्क ही दे सकता है । उपर्युक्त लक्षण में भी 'प्रत्यक्ष अनुमानसे अविरुद्ध' विशेषण पड़ा है और यही यथार्थताके निर्णय की कुञ्जी है । जो बात प्रत्यक्ष अनुमानसे विरुद्ध है और वह अगर किसी शास्त्रमें लिखी है तो समझलो कि वह शास्त्र झूठा है या उसमें वह झूठी बात मिलाई गई है । फिर भलेही वह शास्त्र भगवान महावीर के नामसे ही क्यों न बना हो ।
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अगर हम अपनेको सम्यग्दृष्टि मानते हैं तो हमें उन्हीं शास्त्रों पर या उन्हीं वचनों पर विश्वास करना चाहिये जो प्रत्यक्ष अनुमानादि से अविरुद्ध हों । संस्कृत प्राकृत आदिमें बनी हुई सभी पुस्तकं शास्त्र नहीं हैं, किन्तु सच्चे शास्त्रको
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