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________________ २१० जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! वर्ष तक यही गड़बड़ी रही । दिगम्बरोंने तो उनका मानना ही छोड़ दिया। श्वेताम्बर उसे मानते रहे। पाँचवीं छट्ठी शताब्दी में इस साहित्य की जो कुछ विकृत अविकृत सामग्री इधर उधर पड़ी थी उसका सङ्कलन देवर्धि गणीने किया। इसके बाद फिर इन ग्रन्थों में मिलावट नहीं हुई, परन्तु प्रारम्भ के हज़ार बारह सौ वर्षों में जो विकृति होती रही है उससे यह शुद्ध वीरवाणी नहीं कही जा सकती । मतलब यह है कि एक तरफ़ तो शास्त्रों के आधार पर महावीरकी वीतरागता और सर्वज्ञता नहीं मानी जा सकती और दूसरी तरफ़ ये शास्त्र शुद्ध वीरवाणी सिद्ध नहीं होते । ऐसी हालत में शास्त्रोंके सहारेसे हमें धर्मका ठेका कैसे मिल सकता है ? और जब शास्त्र इतने असमर्थ हैं तब हमें उनकी दुहाई क्यों देना चाहिये ? । यह बिकट समस्या आज ही उपस्थित हुई है या वर्त्तमान सुधारकोंने ही उपस्थित की है, यह बात नहीं हैं। पुराने लेखकोंके समक्ष भी यह समस्या थी । उनने इस समस्याको सुलझाया भी है और अच्छी तरह सुलभाया है । या यों कहना चाहिये कि यह समस्या भगवान् महावीरने ही सुलझादी है । वे किसी व्यक्तिको, या किसी शास्त्रको देवत्व या आगमत्वका ठेका नहीं देते; वे प्रत्येककी परिभाषा बनाते हैं और उसी कसौटी पर कसने की सबको सलाह देते हैं और फिर कहते हैं - "बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदल निलयं केशवं वा शिवं बा ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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