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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १८६ लगते जा रहे हैं और संसार के परोपकार के सब कामों को निस्वार्थ भाव से करने पर भी जैन शास्त्रों के आधार पर एकान्त पाप होना सिद्ध किया जा रहा है । आपने इसके सम्बन्ध में क्या प्रयत्न किया । मैं तो यही कहूंगा कि संसार के परोपकार के कामों को करने में जिन शास्त्रों के द्वारा पाप सिद्ध होता हो हम तो उन शास्त्रों को मानव समाज की व्यवस्था को बिगाड़ने वाले समझते हैं और समाज को व्यवस्था को बिगाड़ने वाले शास्त्रों का न रहना ही हम उचित समझते हैं । इस प्रकार कहकर मैं उठ खड़ा हुआ और आचार्य महाराज से प्रार्थना की कि मेरे प्रति आपके हृदय में किसी प्रकार क्षोभ उत्पन्न हुआ हो तो मैं बारम्बार खमाता हूं । आचार्य महाराज ने फरमाया कि ठहरो, सुनो। नक्षत्रों के भोजन विधान के सम्बन्ध में जो पूछते हो वहां जिन भिन्न भिन्न मांसों के नाम आये हैं वे मांस ही हैं । बनस्पति- विशेष के नाम नहीं हैं । तेरापंथी जो कहते हैं वे गलत कहते हैं । उस स्थान पर जो बचन हैं वे अन्य मजहब वालों के कथन के बचन हैं । मैंने कहा – महाराज, अन्य मजहब वालों के बचन का वहां पर कोई हवाला नहीं है । इन सूत्रों में जिन स्थानों में अन्य मजहब वालों के बचनों का प्रसङ्ग आया है उनमें सबमें प्रतिवृत्तियों से स्पष्ट हवाला दिया हुआ है- जो इस स्थान में कहीं पर नहीं है । इसपर महाराज साहब ने फरमाया कि भाई, तुम समझने के नहीं ; और यह कहकर वहां से उठकर अन्दर के कमरे में पधारने तुम Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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