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जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! । महाराज ने फरमाया कि मैं इन्हें जानता हूं। मैंने पूछा-महागज साहब, आज्ञा हो तो एक बात पूछना चाहता हूं तो उन्होंने फरमाया कि, पूछो। मैंने कहा महाराज, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति के दसम प्राभूत के सतरहवें प्रति-प्राभूत में भिन्न भिन्न नक्षत्रों में भिन्न भिन्न प्रकार के भोजन करके यात्रा करने पर कार्य सिद्धि होने का जो कथन हैं वहां पर सब नाम क्या बनस्पतियों के ही हैं या अन्य कुछ ; तेरापंथ सम्प्रदाय के सन्त-मुनिराज तो बनस्पति-विशेष के नामों का होना ही बतला रहे हैं। इतना सुनते ही आचार्य महाराज मुझसे कहने लगे कि मैने तेरे लेख पढ़े हैं। ऐसे ऐसे लेख लिखकर तुम स्वयम् भ्रष्ट होते हो और लोगों को भ्रष्ट करते हो। तुम को शास्त्रों के पढ़नेका क्या अधिकार है ? और प्रश्न पूछने का क्या अधिकार है ? मैंने नम्रता पूर्वक अर्ज की कि महाराज, प्रश्न पूछने का अधिकार तो आप से थोड़ी देर पहिले ही मैं प्राप्त कर चुका हूं ; और शास्त्रों के पढ़ने का अधिकार अन्य किसी से लेने की कोई आवश्यकता नहीं थी वह तो मेरे जैसे स्वतन्त्र विचार वालोंने स्वयम् ही प्राप्त कर लिया है; परन्तु आपकी बात करने की यह रुख सर्वथा अनुचित है। मैं तो मन्दिरपंथी हूं अतः आप ही की सम्प्रदाय का एक व्यक्ति हूं। आप जैनाचार्य और महान हैं मैं तो आपके समक्ष एक नगण्य व्यक्ति हूं; परन्तु आपको मालूम रहना चाहिये कि मन्दिरपंथ की आज थली प्रान्त में क्या स्थिति हो रही है। जगह जगह जैन मन्दिरों में ताले
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