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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १७७ सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति में टीकाकार ने सारे ग्रन्थ की टीका की है परन्तु जिस स्थान में इन मांसों के भोजन का कथन है केवल उसी स्थल की टीका करनी छोड़ दी और टब्बाकार ने भी ऐसा ही किया है। केवल पहिले नक्षत्र कृतिका में ( मूल पाठ में कहे हुए दही के भोजन के अनुसार ही ) दही का भोजन करके यात्रा करे तो कार्य सिद्धि होती है बाकी २७ नक्षत्रों के लिये यह कह दिया कि कृतिका की तरह इनके मूल पाठ में जो लिखा है वैसा ही समझना । टीकाकार और टब्बाकार का इस स्थान में मौन रहना साफ बता रहा है कि ऐसे निकृष्ट विधान में कलम चलाने की उनकी इच्छा नहीं हुई। शब्दों के अर्थ को बदलते हैं तो संसार परिभ्रमण का भय है और नामों के मुताबिक कहते हैं तो अनेक मांसों के नाम लिखने पड़ते हैं जिसका परिणाम भारी हिंसा हो सकती है । मद्य, मांस, मच्छ और कपोत शरीर, कुक्कुड़मांस तथा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि जिन जिन शास्त्रों में जिस जिस स्थान में ऐसे मद्य, मांसादि शब्दों के साथ भोजन व्यवहारों का सम्बन्ध है उन वाक्यों तथा पाठों के शब्दों को क्यों नहीं उन स्थलों से सर्वथा हटा दिया जाता और उनके स्थान में बनस्पति विशेष के शब्द रख दिये जाते ? यह तो मानी हुई बात है कि बर्त्तमान शास्त्रों के सब भाग को हम सर्वज्ञ प्रणीत नहीं कह सकते और न इनको कोई सर्वज्ञ प्रणीत सिद्ध ही कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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