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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
उत्तरा भद्यवयाहि वराहमंसं भोच्चा ॥ २५ ॥ रेबतिहिं जलयरमंसं भोच्चा कजं साहेति ॥ २६ ॥ अस्सिणिहिं तित्तरमंसं भोच्चा ।
कज्जं साहति अहवा वट्टकमंसं भोच्चा ॥ २७ ॥ भरणीहिं तिल तन्दुलयं भोचा कज्जं साहेति । इति दसमस्स सत्तरमं पहुड़ सम्मतं ॥
सूत्र के उपर्युक्त मूल पाठ में ह स्थानों में भिन्न भिन्न मांसों के भोजन करके यात्रा करने पर कार्य सिद्धि का कथन है । रोहिणी नक्षत्र में बृपभ मांस, मृगसिरा में मृग का मांस, अश लेषा में चित्रक मृग का मांस, पूर्वाफालगुणी में मीढे का मांस, उत्तराफालगुणी में नखयुक्त पशु का मांस उत्तराभाद्रपद में
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सूअर का मांस, रेवती में जलचर यानी मच्छादि का मांस और अश्विनी में तीतर का मांस अथवा बतक के माँस का भोजन का कथन है । श्री गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने यह फरमाया है। समझ में नहीं आता कि जैन धर्म के प्रवर्त्तक, अहिसा के अवतार, जिन भगवान महाबीर ने जनसमुदाय को सुक्ष्मातिसुक्ष्म अहिंसा पालन करने पर अत्यधिक जोर दिया है उन्होंने इस प्रकार का कथन किस आधार पर फरमाया है । यदि यह कार्य सिद्धि इस प्रकार वास्तव में होती तोभी यह बहाना निकल सकता था कि बस्तु स्थिति जैसी होती है वेसा कथन सर्वज्ञ करते है परन्तु बात ऐसी नहीं है। किसी मांस या धान्यादि बस्तु विशेष का
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