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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
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को तो लिपिबद्ध करा देना चाहिये था, जो नहीं किया ; वरना इतनी बड़ी सम्पदा (1) से संसार वञ्चित नहीं रहता । भगवान महाबीर निर्वाण के ६८० वर्ष प्रश्चात वर्तमान सूत्र लिखे गये । यद्यपि असल ( Original) प्रतियों का आज कहीं पता तक नहीं है परन्तु लिख दिये जाने से यह तो हुवा कि धर्म ग्रन्थों पर मुसलमानी जमाने जैसा खतरनाक समय गुजरने पर भी आज लगभग १४७५ वर्ष व्यतीत होगये परन्तु सूत्र ज्यों के त्यों उपलब्ध हैं । क्या इतने बड़े ज्ञानी पूर्वधरों के ज्ञान में यह बात नहीं आई कि लिखवा देने का ऐसा शुभ फल होता है । उन्हें चाहिये था कि ऐसे उपयोगी सूत्रों को लिखवाकर भगवान के ज्ञान को स्थायी कर देते । चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति दोनों सूत्र अक्षरसः एक हैं सो तो विचारणीय बात है ही परन्तु इनमें की एक बात बड़ी ही आश्चर्यजनक नजर आ रही है। दसम प्राभृत के सतरहवें प्रति प्राभृत में भिन्न भिन्न नक्षत्रों में भिन्न भिन्न प्रकारके भोजन करके गमन करे तो कार्य की सिद्धि का होना बतलाया है । इस भोजन विधान में ह जगह भिन्न भिन्न प्रकार के मांसों का भोजन करके जाने पर कार्य सिद्धि का कथन हैं। यहां हम सूत्र के मूल पाठ को ही दे देते हैं ।
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ता कहते भोयण आहितेति वदेज्जा ? ता एते सिर्ण अठ्ठावी साए नक्त्ताकतियाहिं दहिणा भोश्चा कजं साहेति ॥ १ ॥ रोहिणीहि बसभमंसं भोच्चा कज्जं साहेति ॥ २ ॥
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