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१५६ जैन शास्त्रों को असंगत बातें ! यदि यह चवदह पूर्व और पठन मात्र से सेवा में देव हाजिर करने वाले सूत्र वास्तव में ही होते तो ऐसे उपयोगी रत्नों को लोप होने क्यों देते जबकि भगवान महाबीर के समय के ताड़पत्रों पर लिखे हुवे अनेक ग्रंथ मिल रहे हैं। फिर इनके लिये ही न लिखने की कौन सी कानूनी निषेधाज्ञा लागू पड़ती थी। विचारने की बात है कि लिखने की कला रहते हुवे ऐसा कौन ना समझ और अकर्मण्य होगा जो ऐसी उपयोगी वस्तु को केवल लिखने के आलस्य से लोप होने देगा।
दन्त कथा है कि आचार्य महाराज के कान में सूठ का टुकड़ा रखा हुवा था जो बिस्मृत हो गया और प्रतिक्रमण की पलेवना के समय उस संठ के टुकड़े को कान में भूला जान कर विचार किया कि पंचम काल के प्रभाव से दिन प्रति दिन स्मरण शक्ति बिसरती जा रही है अतः भगवान के ज्ञान को लिपिवद्ध कर देना आवश्यक समझ कर सूत्र लिखवाये। जो लोप हो गया उनके लिये भी यही कथन है कि एक साथ लोप नहीं हुआ था परन्तु सनैः सनैः लोप हुवा था। पहले १४ पूर्वधर थे पश्चात् १० पूर्वधर हुवे। होते होते जिस समय सूत्र लिखे गये उस समय केवल आध (१) पूर्व का ज्ञान शेष रह गया था। आश्चर्य तो इस बात का है कि १४ पूर्व में से किंचित यानी आधा पूर्व घट कर जिस समय १३३ पूर्व रहे उसी समय आलस्य त्याग कर चेत जाना चाहिये था और बचे हुवे १३६ पूर्वो को और जिनके पठन मात्र से देवता हाजिर हों-ऐसे चमत्कार पूर्ण सूत्रों
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