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जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १५३ १२८५ में तपागच्छ १५३१ में लुंका गच्छ १५६२ में कटुक मत १५७० में बिजागच्छ १५७२ में पाय चन्द्रसूरि गच्छ १७०६ में लवजी का मत ( जिसके स्थानकवासी हुवे हैं ) और १८१६ में तेरापंथ मत चालू हुवे। इनके अतिरिक्त और भी अनेक मत चालू हुवे हैं। आज भी हम वराबर देख रहे हैं कि सूत्रों के इन सन्दिग्ध वचनों में उलझकर प्रति वर्ष सैकड़ों साधु अपने २ गच्छ
और मतों से निकल पड़ते हैं और आवारा भटक कर अपनी जिन्दगी बरबाद करते हुवे मर मिटते हैं। यह है इन सूत्रों के सन्दिग्ध वचनों का कटु फल। इन ही सन्दिग्ध वचनों के आधार पर भगवान महावीर के सपूत (ये साधु ) फिरका बन्दी में पड़ कर परस्पर लड़ रहे हैं। एक दूसरे को बुरा बताने में तनिक भी नहीं अघाते। शेताम्बर जैन के इस समय मुख्य मुख्य तीन फिरके हैं। किसी के पास चले जाइये बाकी के दो फिरकों की निन्दा करते देख कर आप ऊब जायेंगे। इन सन्दिग्ध वचनों के आधार पर कोई भगवान की प्रतिमा को सन्मान करना दोष बता रहा है तो कोई माता पिता, पति की सेवा सुश्रूषा करना, विपत्ती में पड़े हुवे की सहायता करना, शिक्षा प्रचार आदि संसार के जितने भी उपकार के सत्कार्य हैं सब को निस्वार्थ भाव से करने पर भी एकान्त पाप बता रहा है। इसका कारण किसी व्यक्ति विशेष का निजू स्वार्थ नहीं हैं और न किसी की द्वेष बुद्धि से ऐसा हो रहा है परन्तु इसका कारण एक मात्र इन सूत्रों के सन्दिग्ध वचन और इनकी त्रुटि
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