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'तेरापंथी युवक संघ का बुलेटिन नं० २' जन सन् १९४४ ई०
जैन सूत्रों में मांस का विधान
पिछले किसी एक लेख में मैने यह कहा था कि एक ही बात के विषय में एक सूत्र में कुछ ही लिखा हुआ है तो दूसरे में कुछ ही। यहां तक है कि परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध तक लिखा हुआ है। इस प्रकार की परस्पर बे-मेल बातें जैन शास्त्रों में प्रायः सैंकड़ों की संख्या में हैं और असत्य, अस्वाभाविक और असम्भव प्रतीत होने वाली बातों के विषय में तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि वे हजारों की संख्या में हैं। ऐसी अवस्था में शास्त्रों को भगवान के वचन कह कर अक्षर-अक्षर सत्य कहना सर्वज्ञता के नाम का उपहास करना है। वर्तमान जैन सूत्रों की त्रुटि पूर्ण रचना और सन्दिग्ध वचनों के कारण जैन धर्मानुयाइयों के एक ही सूत्रों को मानते हुवे अनेक फिर के होते गये और होते जा रहे हैं। विक्रम सम्वत ५२३ के लगभग इन सूत्रों की रचना हुई थी। उस समय से आज तक इन सूत्र वचनों का भिन्न २ अर्थ निकलने के आधार पर सेंकड़ों नये नये मत चालू होते रहे हैं और परस्पर एक दूसरे से इन वचनों को लेकर लड़ते झगड़ते रहे हैं। सूत्रों की रचना के कुछ ही समय पश्वात् बड़गच्छ की स्थापना हुई इसके पश्चात् विक्रम संवत् ११३६ में षटकल्याणक मत १२०४ में खरतर गच्छ १२१३ में आंचलिक मत १२३६ में सार्द्ध पौर्णिमेयक मत १२५० में आगमिक मत
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