SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १४३ 1 न अक्षर-अक्षर सत्य ही, ऐसी दशा में इन शास्त्रों को सर्वज्ञ बचन और अक्षर-अक्षर सत्य मानने वालों का यह कर्तव्य हो जाता है कि या तो इन लेखों की बातों का उचित समाधान करके अक्षर-अक्षर सत्य को प्रमाणित करें या मानव-समाज के परोपकारी और सार्वजनिक लाभ के कामों को निस्वार्थ भाव से करने वाले को एकान्त पाप और अधर्म होता है, ऐसा कहने के लिये शास्त्रों का आधार छोड़ कर ऐसे घातक सिद्धान्तों का प्रचार न करें, कारण उनकी दृष्टि में ऐसे सत्कार्यों के करने में यदि इन शास्त्रों से एकान्त पाप होने का अर्थ निकलता भी हो तो, असत्य मान लें । सार्वजनिक लाभ के परोपकारी कामों को निस्वार्थ भाव से करने में धर्म न मान कर यदि पुण्य का होना भी मान लिया जाय तो भी मानव समाज के लिये इतना अनिष्ट नहीं होता । कारण पुण्य के लोभ में इन सब कामों के करने की मनुष्य की प्रवृत्ति अवश्य बनी रहती है मगर एकान्त पाप मान लेने पर तो कौन ऐसा अज्ञानी औरनासमझ होगा जो समझ-बूझ कर अपने समय, शक्ति और धन की व्यर्थ हानि कर भी एकान्त पाप से अपने आपको खामखा दुःखों के गर्त में डालेगा। जिस काम के करने में अपना खुद का तनिक भी स्वार्थ नहीं, किसी प्रकार का निजी लाभ नहीं, वह भूल कर भी ऐसा किस लिये करेगा ।. उसकी भावना तो यही रहेगी कि दूसरा कोई कष्ट पाता है, तो उसके कर्मों का भोग वह भोगे । मै बीच में पड़ कर व्यर्थ ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy