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'तरुण जैन' अगस्त सन् १६४२ ई० टिप्पणीः लेखक का सुझाव
इस लेखमाला के १५ लेख प्रकाशित हो चुके जिनमें जैन शास्त्रों की असत्य, अस्वाभाविक और असम्भव प्रतीत होनेवाली बातों के विषय में शास्त्रज्ञों एवम् विद्वानों के समक्ष समाधान की आशा से मैंने प्रश्न रखे थे। किसी प्रकार का समाधान न मिलने पर गत मार्च के लेख में चुनौती तक दी मगर फिर भी किसी सज्जन ने समाधान करने का प्रयास तक नहीं किया । 'तरुण जैन' को प्रति मास हजारों जैनी पढ़ते हैं । यह तो हो ही नहीं सकता कि इन पढ़नेवालों में सब ही शात्रों के अजान और लेखों के तर्क को न समझने वाले ही हैं । जहाँ तक मुझे मालूम है हमारे थली प्रान्त के बहुत से विद्वान सन्त मुनिराज इन लेखों को बड़े ध्यान से पढ़ते हैं, मगर सब मौन हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि यह बातें वास्तव में जैसी मैंने लिखी हैं, वैसी ही मान ली गई हैं । जब तक मेरे लेख भूगोल - खगोल की प्रत्यक्ष प्रमाणित होनेवाली बातों के विषय में निकलते रहे तब तक यह शास्त्रज्ञ जन सर्व साधारण को यह - कहते रहे कि भूगोल- खगोल की बात जैन शास्त्रों की लिखी हुई बातों से मेल नहीं खातीं यानी सत्य प्रमाणित नहीं होती ; वहुत से शास्त्र 'लोप' हो गये शायद उनमें इनका सही वर्णन होगा । मगर जब से मैंने गणित में असत्य प्रमाणित होने वाली सर्वज्ञों
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