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१३८ जैन शास्त्रों को असंगत वातें ! .. महाविदेह क्षेत्रस्थित १२ अङ्गसूत्रों के बिस्तार-क्रम और रचना-क्रम के बताने में समवायांङ्ग सूत्र ओर नन्दी सूत्र के दरमियान जो अन्तर है, वह ऊपर बताया जा चुका है। सर्वज्ञों के बचनो में जहां एक अक्षर भी इधर-उधर होने की गुञ्जाइश नहीं और निश्चय पूर्वक अक्षर-अक्षर सत्य होने चाहिये, वहाँ उनके बचनों में इस प्रकार एक ही बात के विषय में एक सूत्र में कुछ ही और दूसरे में कुछ ही कहा हुआ हो तो सहज ही यह कहा जा सकता है कि ऐसे वचन सर्वज्ञ वचन नहीं हैं
और यह सूत्र सर्वज्ञ-भाषित नहीं हैं। विद्वान शास्त्रज्ञों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि इस विषय का यदि कोई समाधान हो सके तो कृपा करके 'तरुण जैन' द्वारा या मेरे से सीधे पत्रव्यवहार द्वारा समाधान करें। एक ही बात के विषय में एक सूत्र में कुछ ही लिखा हुआ है और दूसरे में कुछ ही। ऐसे सैकड़ों प्रसङ्ग सूत्रों में मिलते हैं जिन में से टीका-कारों ने कुछ का समधान करने का प्रयास भी किया है। बहुत थोड़ों का ठीक समाधान हुआ है, बाकी के लिये यही कहा जा सकता है कि केवल लीपा-पोती की गई है।
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा, कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली विवरण-पत्रिका' "के गत अप्रेल के अङ्क में" आधुनिक विज्ञान की नई खोज” शीर्षक एक लेख मैंने देखा है जिस में सम्पादक महोदय ने लिखा है कि "चाहे वैज्ञानिक कितने ही बडे क्यों न हों, वे दो ज्ञान के धारक हैं उनका ज्ञान पूर्ण नहीं हो
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