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जैन शास्त्रों की असंगत ढातें !
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संख्याएं घड़ी हुई सी प्रतीत होती हैं और अस्वाभाविक हैं । चौबीसों ही भगवान के केवलज्ञान प्राप्त साधु-साध्वियों की संख्या के आंकड़ों की सजावट आश्चर्य जनक है । इस सजावट ने बाकी की सारी सजावट को मात कर रखा है । सारी सजावट नपी तुली है । केवलज्ञान प्राप्त साधुओं की संख्या में एक एक हजार और पांच सौ का क्रम से लगातार घटना और साधुओं की प्रत्येक संख्या से साध्वियों की प्रत्येक संख्या का ठीक दुगुणा होना यह साफ जाहिर कर रहा है कि यह स्वाभाविक नहीं हो सकता । केवलज्ञान प्राप्त होना पुरुषार्थ तथा शुभ करनी के फल से होता है और पुरुषार्थ तथा शुभ करनी करनेवालों की संख्या इस तरह निश्चित नहीं हो सकती । फिर इस प्रकार के क्रम से नपे तुले पैमाने पर घटाव और साधुओं से साध्वियों की संख्या का ठीक दुगुणा होना कैसे स्वाभाविक हो सकता है, यह विचारने की बात है । इस तालिका के प्रायः सब आंकड़े अस्वाभाविकपन से भरे पड़े हैं इसके लिये कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो हो नहीं सकता केवल अनुमान से ही हम निर्णय कर सकते हैं कि यह आकड़े स्वाभाविक हैं या अस्वाभाविक । इसलिये प्रारम्भ में ही मैंने कह दिया है कि इसका निर्णय करना आप के हृदय और विवेक का काम है । मुझे इस बात पर अभी तक आश्चर्य हो रहा है कि जैनशास्त्रों में त्याग, वैराग्य और संयम रखने के लिये सुन्दर सुन्दर विधान देनेवाले शास्त्रकारों ने इस प्रकार अस्वाभाविक, असम्भव और असत्य प्रतीत होने
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