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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! घटाते हुए जब १०० की संख्या पर पहुंचे तो सोचा कि अब पचास घटाते जाने की गुञ्जाइश नहीं है तो दस दस घटाना प्रारम्भ कर दिया और दस दस घटाते पचास धनुष्य की संख्या तक पहुंच कर पांच पांच धनुष्य घटाने लगे। घटाव के ऐसे क्रम को स्वाभाविक नहीं समझा जा सकता। घटाव के इस क्रम में एक बात ध्यान पूर्वक देखने की है कि आठवें भगवान चन्द्रप्रभु और नौवें भगवान सुबुद्धिनाथ के दरमियानी समय में घटाव पचास धनुष्य का है और नौवें भगवान सुबुद्धिनाथ और दसवें भगवान शीतलनाथ स्वामीके दरमियान घटाव दस धनुष्य का है। इससे साफ जाहिर होता है कि यह घटाव समय के लिहाज से किया हुआ नहीं है। पचास घटाते घटाते जब देखा कि अब फिर पचास घटाने की गुञ्जाइश नहीं है तो दस दस घटाने लगे। खाना पूरी करने की दृष्टि न होती और वास्तविकता होती तो आयु के समय के लिहाज का बर्ताव ओझल नहीं रहता। कारण यहां घटाव में समय का गुजरना ही प्रधान है। साधुत्वकाल की संख्याओं की भी यही हालत है। पहिले भगवान ऋषभदेव से आठवें भगवान चन्द्रप्रभु तक प्रत्येकका साधुत्वकाल एक लाख पूर्व यानी ७०५६००००००००००००००० वर्ष का बताया है । इसमें आयु की संख्याके साथ कोई मिलान नहीं है मगर नौवं भगवान सुबुद्धिनाथ से बीसवें भगवान मुनि सुब्रत प्रभु तक लगातार प्रत्येक की पूरी आयु का चौथा हिस्सा साधुत्वकाल का बताया है। इस प्रकार यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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