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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १११ जैन और दिगम्बर जैन। इन दोनों सम्प्रदायों के जैनियों की संख्या इस समय ११-१२ लाख की है। इस ११-१२ लाख की संख्या में प्रायः १०-११ लाख जैनियों की मान्यता यह है कि सामाजिक मनुष्य को शिक्षा-प्रचार आदि सार्वजनिक लाभ के सत्कार्यों को निःस्वार्थ भाव से करने में पुण्य उपार्जन होता है यानी शुभ कर्मों का बन्ध होता है जिनके होने से मनुष्य को ऐहिक सुखों की प्राप्ति और धर्म-करणी करने के साधन उपलब्ध होने का शुभ अवसर प्राप्त होता है। शेष लाख सवा लाख की मान्यता यह है कि सामाजिक मनुष्य को शिक्षा-प्रचार आदि सार्वजनिक लाभ के कामों को निस्वार्थ भाव से करने पर भी एकान्त पाप और अधर्म होता है जिसके परिणाम स्वरूप उसे केवल दुःखों की प्राप्ति होती है। इन दोनों तरह की मान्यताओं के क्या क्या कारण है और किस किस दृष्टिकोण से अपना अपना भिन्न मत प्रतिपादन किया जा रहा है, यह मैं किसी स्वतन्त्र लेख में विस्तार पूर्वक बताऊँगा। यह मानी हुई बात है कि इन दोनों तरह की मान्यताओं का आधार इन शास्त्रों की अक्षर अक्षर सत्यता पर अवलम्बित है। इस सत्यता का परिचय मेरे लेखों से आपको बखूबी मिल ही चुका है और मिलता रहेगा। इन शास्त्रों के आधार पर इस प्रकार की जो परस्पर विरोधी और भिन्न भिन्न विचारधारा उत्पन्न हुई है इसका कारण किसी व्यक्ति विशेष का निज स्वार्थ नहीं है परन्तु इन शास्त्रों की सन्दिग्ध भाषा और रचना की त्रुटि है। मनुष्यके कर्तध्य और धर्म बतलाने में जिस प्रकार के सन्दिग्ध शब्दों और भावों का इनमें प्रयोग हुआ है, उनसे किसी का मुगालते (भ्रम) में पड़ना बहुत ही सम्भव है। वरना क्या कारण है कि एक ही शास्त्रों को मानते हुए हमारी जैन श्वेताम्बर शाखा की मुख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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