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'तरुण जैन' अप्रैल सन् १६४२ है०
कल्पना की दौड़
'तरुण जैन' में मेरे लेखों का इस अङ्क से पहिला वर्ष समाप्त होता है। मुझे यह आशा थी कि जैन कहलाने वाले विद्वान एवं शास्त्रज्ञों द्वारा मेरे प्रश्नों का समुचित समाधान प्राप्त होगा मगर खेद एवं आश्चर्य है कि अभी तक किसी ने किसी तरह का भी समाधान करने का प्रयास नहीं किया । मैं इस बात को तो मान ही नहीं सकता कि मेरे लेखों को किसी विद्वान और शास्त्रों के जानने वाले ने पढ़ा तक न हो । 'तरुण' की ग्राहक - संख्या चाहे कम हो परन्तु पढ़ने बालों की संख्या अवश्य हजारों की है । अतः विचारशील व्यक्ति को मजबूरन इस नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि वास्तव में शास्त्रों की अक्षर अक्षर सत्यता का कथन स्वीकार करना अन्धश्रद्धा और अज्ञान के सिवाय कुछ तथ्य नहीं रखता । मैं यह नहीं कहता कि शास्त्रों में लिखी हुई सब ही बातों को असत्य और मिथ्या मान लिया जाय । मेरा कहना तो यह है कि असत्य को अवश्य असत्य माना जाय । शास्त्रों की अन्धश्रद्धा के कारण यदि कोई प्रत्यक्ष असत्य को असत्य नहीं मान सकता तो वह भगवान के बचनों के अनुसार सम्यक्त्ववान कहलाने का अधिकारी नहीं है। जिन शास्त्रों में इस प्रकार प्रत्यक्ष असत्य, अस्वाभाविक और असम्भव बातें मौजूद हैं, उनकी अक्षर अक्षर सत्यता के आधार पर सामाजिक व्यक्ति को शिक्षा प्रचार, पारस्परिक सहयोग और सहायता आदि सत्कार्य, जिन पर कि मानव समाज का अस्तित्व टिका हुआ है, के करने में यदि एकान्त पाप और अधर्म बताया जाय तो समाज के मानस पर इसका कैसा दुष्परिणाम हो सकता हैं यह बिचारने का विषय है । लाने वालों की इस समय दो मुख्य सम्प्रदाय हैं ।
जैन कहश्वेताम्बर
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