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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! मैंने कहा---'इसका कारण तो मैं गत जनवरी के मेरे लेख में दे चुका हूं कि समाज-हित के साधनों पर कुठाराघात करने वाले भावों के उत्पन्न होने की गुंजाइश इन जैन शास्त्रों से ही प्राप्त हुई वरना संसार में ऐसा कोई मजहब नहीं है जिसके शास्त्रों से यह भाव उत्पन्न हुए हों कि सामाजिक मनुष्य को भी शिक्षाप्रचार करने, भूखे प्यासे तड़फ मरते को अन्न-पानीकी सहायता करने, अनाथों की रक्षा करने, अस्वस्थ माता, पिता, पति की सेवा-सुश्रुषा करने आदि सत्कार्यों के करने में एकान्त पाप और अधर्म होता है।” मेरे मित्र कहने लगे कि "सभी सम्प्रदाय तो ऐसा कहते नहीं। आपके मन्दिर पंथ के सिद्धान्तानुसार तो ऐसे समाज हित के सत्कार्यों में सहायक होना पुण्य-उपार्जन का हेतु कहा गया है ।" मैने कहा-"इसीलिये तो केवल भावों के उत्पन्न होने की गुंजाइश" शब्दोंका प्रयोग किया गया है बरना सब पंथ यदि एक-सा ही कहते तो साफ साफ यही कह दिया जा सकता कि समाज-हित के कामों को जैन शास्त्र एकान्त पाप और अधर्म बतला रहे हैं । मैंने कहा-"यदि आप भी लोकोपकारक कामों के करने में पुण्य-उपार्जन का हेतु कहते तो मेरे जैसे गृहस्थ व्यक्ति को इन शास्त्रों की बातों को परीक्षा पर चढ़ाने की सूझती भी नहीं। गृहस्थों को शास्त्र पढ़ने के लिये तो १४४ धारा की हिदायत लागू की हुई हैं। मेरा यह उसूल ही नहीं है कि किसी साधु-संस्था के व्यक्तिगत आचरणों पर या व्यक्तित्व पर आक्षेप करूं बल्कि जो साधु अपना शुद्ध संयमी जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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