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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
तीर्थ-यात्राओं, कुम्भादि मेलों, नये नये मन्दिरों के निर्माण और प्रतिष्टाएँ कराने, महाराजोंके चौमासे कराने आदि नाना तरह के मजहबी आडम्बरों में और इन ६० लाख ‘सन्तों' की निठल्ली फौज को बैठे बैठे खिलाने में भूखे भारत के करोड़ों रुपये प्रति वर्ष नष्ट होते हैं। क्या भारत को शिक्षा के प्रचार, अनाथों के पोषण, बेकारों के लिये उद्योग, अशिक्षितों को शिक्षा दिलाने आदि नाना तरह के कामों के लिये द्रव्य की आवश्यकता नहीं है ? मजहबी आडम्बरों के लिये तो सेठों की थैलियों के मुंह सर्वदा खुले रहते हैं मगर इन अभावों को रफा करने के लिये जब द्रव्य की आवश्यकता होती है तो सेठ लोग नाना तरह के बहाने ढूढ़ने लगते हैं। बल्कि कुछ महापुरुष तो यहां तक कहने में भी नहीं हिचकिचाते कि इन सब कामों के करने में सहायता देना एकान्त पाप और अधर्म है। इसका कारण ही एक मात्र यह है कि हमारे उपदेशक शास्त्रों की अक्षर अक्षर सत्यता की दुहाई पर मानव समाज को गुमराह कर रहे हैं। स्वर्ग और मोक्ष के लुभावने सुखों का लालच बता कर मजहबी आडम्बरों में द्रव्य खच करने को आकर्षित करते रहते हैं। यही कारण है कि मजहबी आडम्बरों में प्रति वर्ष करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं। मगर सार्वजनिक लाभ के कामों के लिये बहाना बता दिया जाता है। मेरे एक मित्र, जो जैन श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय के मानने वाले हैं, मुझ से पूछने लगे कि “शास्त्रों की असत्य बातों को इस प्रकार लेखों द्वारा आप क्यों दे रहे हैं ?"
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