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________________ करने से वन्दन करने वाले को न तो कर्म की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही। बल्कि असंयम आदि दोषों के अनुमोदन द्वारा कर्मबन्ध होता है (आ०-नि०, गा० ११०८)। अवन्ध को वन्दन करने से वन्दन करने वाले को ही दोष होता है, यही बात नहीं, किन्तु अवन्दनीय के आत्मा का भी गुणी पुरुषों के द्वारा अपने को वन्दन करानेरूप असंयम की वृद्धि द्वारा अधःपात होता है (आ०-नि०, गा० १११०)। वन्दन बत्तीस दोषों से रहित होना चाहिये । अनाहत आदि वे बत्तीष दोष आवश्यक-नियुक्ति, गा० १२०७-१२११ में बतलाये हैं। __(४) प्रमाद-वश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करना, यह 'प्रतिक्रमण' है । तथा अशुभ योग को छोड़ कर उत्तरोत्तर शुभ योग में वर्तना, यह भी 'प्रतिक्रमण' है । प्रतिवरण, परिहरण, वारण, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और शोधि, ये सब प्रतिक्रमण के समानार्थक शब्द हैं (आ०-नि०, गा० १२३३)। इन शब्दों का भाव समझाने के लिये प्रत्येक शब्द की व्याख्या पर एक-एक दृष्टान्त दिया गया है, जो बहुत मनोरञ्जक हैं (आ०नि०, गा० १२४२)। १-"स्वस्थानाद्यन्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥" २-"प्रति प्रति वर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । निःसल्यस्य यतैर्यत, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ १॥" [ आवश्यक-सूत्र, पृष्ठ । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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