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जानने के लिये वन्द्य कैसे होने चाहिये ? वे कितने प्रकार के है ? कौन-कौन अबन्ध हैं ? अवन्ध-वन्दन से क्या दोष है ? वन्दन करने के समय किन-किन दोषों का परिहार करना चाहिये, इत्यादि बातें जानने योग्य हैं।
द्रव्य और भाव-उभय-चरित्रसंपन्न मुनि ही वन्ध हैं (आ० - नि०, गा० ११०६)। वन्द्य मुनि(१)आचार्य,(२)उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, (४) स्थविर और (५) रत्नाधिक-रूप से पाँच प्रकार के हैं (आ०-नि०, गा० ११९५) । जो द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग एक-एक से या दोनों से रहित है, वह अवन्ध है । अवन्दनीय तथा वन्दनीय के सम्बन्ध में सिक्के की चतुर्भङ्गी प्रसिद्ध है (आ०-नि०, गा० ११३८)। जैसे चाँदी शुद्ध हो पर मोहर ठीक न लगी हो तो वह सिक्का ग्राह्य नहीं होता । वैसे ही जो भावलिङ्गयुक्त हैं, पर द्रव्यलिङ्गविहीन हैं, उन प्रत्येकबुद्ध आदि को वन्दन नहीं किया जाता। जिस सिक्के पर मोहर तो ठीक लगी है, पर चाँदी अशुद्ध है, वह सिक्का ग्राह्य नहीं होता । वैसे ही द्रव्यलिङ्गधारी हो कर जो भावलिङ्गविहीन हैं, वे पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के कुसाधु अवन्दनीय हैं । जिस सिक्के को चाँदी और मोहर, ये दोनों ठीक नहीं है, वह भी अग्राह्य है। इसी तरह जो द्रव्य और भाव-उभयलिङ्गरहित हैं, वे वन्दनीय नहीं । वन्दनीय सिर्फ वे ही हैं, जो शुद्ध चाँदी तथा शुद्ध मोहर वाले सिक्के के समान द्रव्य और भाव-उभयलिङ्गसम्पन्न हैं (आ०नि०, गा० ११३८)। अवन्ध को वन्दन
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