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________________ परिशिष्ट । १३ तुह जिण सरणरसायणेण लहु हंति पुणण्णव, जयधनंतरि पास मह वि तुह रोगहरो भव ॥ ३ ॥ (४) विज्जाजोइसमतततसिद्धिउ अपयत्तिण, भुवणऽभुउ अट्टविह सिद्धि सिज्झहि तुह नामिण । तुह नामिण अपवित्तओ वि जग होइ पवित्तउ, तं तिहुअणकल्लाणकोस तुह पास निरुत्तउ ॥४॥ खुद्दपउत्तइ मंततंतताइ विसुत्तइ, चरथिरगरलगहुग्गखग्गरिउवग्ग विगंजइ । दुत्थियसत्थअणत्थवत्थ नित्थारइ दय करि, दुरियइ हरउ स पास देउ दुरियक्करिकेसरि ॥ ५ ॥ जह तुह रूविण किण वि पेयपाइण वेलवियउ, तुवि जाणउ जिण पास तुम्हि हडं अंगकिरिउ । इय मह इच्छिउ जं न होइ सा तुह ओहावणु, रक्खंतह नियकित्ति णेय जुज्जइ अबहीरणु ॥२९॥ एह महारिय जत्त देव इहु न्हवण महुसउ, जं अणलियगुणगहण तुम्ह मुणिजणअणिसिद्धउ । एम एसीह सुपासनाह थंभणयपुरट्ठिय, इय मुणिवरु सिरिअभयदेउ विन्नवइ अणिदिय ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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