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परिशिष्ट ।
[ सिरिथंभणयट्ठिय पाससामिणो । ] * सिरिथंभणयट्ठियपास, - सामिणो सेसतित्थसामीणं । तित्थसमुन्नइकारणं, सुरासुराणं च सव्वेसिं ॥ १॥ एसमहं सरणत्थं, काउस्सग्गं करेमि सत्तीए । भत्तीए गुणसुट्ठिय, स्स संघस्स समुन्नइनिमित्तं ॥२॥ अर्थ- श्रीस्तम्भन तीर्थ में स्थित पाश्र्वनाथ, शेष तीर्थों के स्वामी और तीर्थों की उन्नति के कारणभूत सब सुर-असुर, ॥१॥ इन सब के स्मरण- निमित्त तथा गुणवान् श्रीसङ्घ की उन्नति के निमित्त मैं शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करता हूँ ॥ २ ॥
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[ श्रीमण पार्श्वनाथ का चैत्य-वन्दन । ] श्रीसेढीतटिनीत पुरवरे श्रीस्तम्भने स्वगिरौ, श्रीपूज्याऽभयदेवसूरिविबुधाधीशैस्समारोपितः । संसिक्तस्स्तुतिभिर्जलैः शिवफलैः स्फूर्जत्फणापल्लवः, पार्श्वः कल्पतरुस्स मे प्रथयतां नित्यं मनोवाञ्छितम् ॥ १ ॥ अर्थ - श्रीसेढी नामक नदी के तीर पर खंभात नामक सुन्दर शहर है, जो समृद्धिशाली होने के करण सुमेरु के समान है । उस जगह श्री अभयदेव सूरिने कल्पवृक्ष के समान पार्श्वनाथ प्रभु को स्थापित किया और जल - सदृश स्तुतिओं के द्वारा उस
* श्रीस्तम्भनकस्थितपार्श्वस्वामिनश्शेषतीर्थस्वामिनाम् । तीर्थसमुन्नतिकारणं सुरासुराणां च सर्वेषाम् ॥१॥ एषामहं स्मरणार्थं कायोत्सर्ग करोमि शक्त्या ।
भक्त्या गुणसुस्थितस्य संघस्य समुन्नतिनिमित्तम् ॥२॥
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