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प्रतिक्रमण सूत्र । भावार्थ-आप के केवलज्ञानरूप सूर्य के प्रकाशमान रहते हुए भी मैं ने 'न आत्मा है, न पुण्य-पाप है और न पुनर्जन्म ही है, इस प्रकार की (आत्म-) चोरों की कटु वाणि-मिथ्या भाषा हे भगवन् ! अपने कानों में धारण की। मुझ को धिक्कार है ॥१७॥ नदेवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः । लब्ध्वाऽपि मानुष्यमिदं समस्तं कृतं मयाऽरण्यविलापतुल्यम्१८
भावार्थ-न मैं ने देव-पूजा की, न अतिथि-सत्कार किया, न गृहस्थ-धर्म और न साधु-धर्म का ही पालन किया। मनुष्य-जन्म पा कर भी मैं ने उसे अरण्य-रोदन की तरह-निष्फल ही किया ॥१८॥ चक्रे मयाऽसत्स्वपि कामधेनु, कल्पद्रुचिन्तामाणिषु स्पृहार्तिः । न जैनधर्मे स्फुटशर्मदेऽपि, जिनेश ! मे पश्य विमूढभावम् ।१९।
भावार्थ-मैं ने कामधेनु, कल्प-वृक्ष और चिन्तामणि-रत्न जैसे असत्-मिथ्या पदार्थों की तो चाह की, पर प्रत्यक्ष कल्याण करने वाले जैनधर्म की चाह नहीं की। हे जिनेश्वर ! तूं मेरी इस मूढता को तो देख-वह कितनी अधिक है ॥१९॥ सद्भोगलीला न च रोगकीला, धनागमो नो निधनागमश्च । दारान कारा नरकस्य चित्ते,व्यचिन्ति नित्यं मयकाधमेना२०॥
भावार्थ-मुझ नीच ने जिन का हमेशा ध्यान किया; वे सुन्दर सुन्दर भोग-विलास, भोग-विलास नहीं, बल्कि रोगों की जड़ हैं; धन का आना,धन का आना नहीं, बल्कि नाश का आना है और स्त्री, स्त्री नहीं, बल्कि नरक की बेड़ी है ॥२०॥
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