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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि ।
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लोलेक्षणावक्त्रनिरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः । न शुद्धसिद्धान्तपयोधिमध्ये, धौतोऽप्यगात्तारक ! कारणं किम्
भावार्थ - स्त्रियों का मुख देखने से मेरे मन में रागरूप मल का जो अंशमात्र लग गया है, वह पवित्र सिद्धान्तरूप समुद्र में धोने पर भी अभी तक दूर नहीं हुआ । हे संसार - तारक ! इसका क्या कारण है ? ॥ १४ ॥
अङ्गं न चङ्गं न गणो गुणानां, न निर्मलः कोऽपि कलाविलासः स्फुरत्प्रभा न प्रभुता च काऽपि तथाऽप्यहङ्कारकदर्थितोऽहम् ।
भावार्थ- न तो मेरा शरीर सुन्दर है, न मुझ में कोई गुण-समूह है, न मेरे पास कोई सुन्दर कला ही है और मेरे पास ऐसा कोई ऐश्वर्य भी नहीं है, जो आकर्षक हो, फिर भी अहङ्कार ने मुझ को बिगाड़ रक्खा है ॥ १५ ॥ आयुर्गलत्याशु न पापबुद्धि, र्गतं वयो नो विषयाभिलाषः । यत्नश्च भैषज्य विधौ न धर्मे, स्वामिन्महामोहविडम्बना मे ॥ १६ ॥ भावार्थ - आयु बराबर कम हो रही है, पर पाप- बुद्धि- दुर्वा - सना कम नहीं होती । उम् गई यानी बुढ़ापा आगया, पर अभी तक विषय-तृष्णा नहीं गई अर्थात् वह जैसी की तैसी है । प्रयत्न किया जाता है, पर वह दवा-दारू आदि के लिये ही, धर्म के लिये नहीं । यह सब मेरी महामोह की विडम्बना ही है ॥ १६ ॥ नात्मा न पुण्यं न भवो न पापं, मया विटानां कटुगीरपीयम् । अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के, परिस्फुटे सत्यपि देव ! धिङ् माम् ॥
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