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चैत्य - वन्दन - स्तवनादि ।
[ एकत्व भावना की सज्झाय । ] तू क्यों भूल परे ममता में, या जग में कह कौन है तेरो । आयो एक ही एक ही जावे, साथी नहीं जग सुपन वसेरो । एक ही सुखदुःख भोगवे प्राणी, संचित जो जन्मांतर केरो । तू | 2 धन संच्यो करी पाप भयंकर, भोगत स्वजन आनंद भरे रो । आप मरी गयो नरक ही थाने, सहे कलेश अनंत खरे तू |२| जिस वनिता से मदन हीं मातो, दिये आभरण ही वसन भले रो। वह तनु सजी परपुरुष के संगे, भोग करे मन हर्ष धनेरो | तू | ३ | जीवितरूप विद्यतसम संचल, डाभ अनी उदबिंदु लगे रो । इन में क्यों मुरझायो चेतन, सत चिद आनंद रूप एके रो । तू४ | एक ही 'आतमराम' सुहंकर, सर्व भयंकर दूर टरे रो । सम्यग दरसन ज्ञान स्वरूपी, भेख संयोग ही बाह्य धरे रो | तू ५। [ पद १ । ] आशा औरन की क्या कीजे, ज्ञान सुधारस पीजे । भटके द्वार द्वार लोकन के, कूकर आशा धारी । आतम अनुभव रस के रसिया, उतरे न कबहु खुमारी । आ०।१। आशा दासी के जे जाया, ते जन जग के दासा । आशा दासी करे जे नायक, लायक अनुभव प्यासा । आ० २३ मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म - अग्नि परजाली । तन भाठी अटाई पिये कस, जागे अनुभव लाली । आ० । ३ अगम पियाला पियो मतवाला, चिन्ही अध्यातम वासा । 'आनन्दघन' चेतन है खेले, देखे लोक तमासा । आ० |४|
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