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________________ ३४८ प्रतिक्रमण सूत्र । राग ने रीसा दोय खवीसा, ए तुम दुःख का दीसा ! जब तुम इन को दूर करीसा, तब तुम जग का ईसा । आ०।४। पर की आशा सदा निराशा, ए हे जग जन पाशा। ते काटन कुं करो अभ्यासा, लहो सदा सुख वासा। आ०१५ कवहीक काजी कबहीक पाजी, कवहीक हुआ अपभ्राजी । कबहीक जग में कीर्ति गाजी, सब पुद्गल की बाजी। आ०।६। शुद्ध उपयोग ने समता धारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी । कर्म कलंक कुं दूर निवारी, 'जीव' वरे शिव नारी । आ०७ [ आनित्य भावना की सज्झाय । ] यौवन धन थीर नहीं रहना रे। प्रात समय जो निजरे आवे, मध्य दिने नहीं दीसे । जो मध्याने सो नहीं राते, क्यों विस्था मन हींसे । यौ०।११ पवन झकोरे बादल विनसे, त्युं शरीर तुम नासे । लच्छी जल-तरंगवत् चपला, क्यों बांधे मन आसे । यौ०।२। बल्लभ संग सुपन सी माया, इन में राग ही कैसा । छिन में ऊड़े अर्क तूल ज्यू, यौवन जग में ऐसा । यौ०३ चक्री हरि पुरंदर राजे, मद माते रस मोहे । कौन देश में मरी पहुंते, तिन की खबर न कोहे । यौ०१४ जग माया में नहीं लोभावे, 'आतमराम' सयाने । अजर अमर तू सदा नित्य है, जिनधुनि यह सुनी काने । यो ०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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