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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि । ३४५
(१) बारसा सूत्र ने, सामाचारी, संवच्छरी पडिक्कमीये जी । चैत्य प्रवाड़ी, विधिसु कीजे, सकल जंतु खामीजे जी ॥ पारणाने दिन, स्वामी-वत्सल. कीजे अधिक बड़ाई जी। 'मानविजय' कहे, सकल मनोरथ, पूरे देवी सिद्धाई जी ॥४॥
[ दीवालो की स्तुति ।]
मनोहर मूर्ति महावीरतणी, जिणे सोल पहोर देशना पभणी। नवमल्ली नवलच्छी नृपति सुणी, कही शिव पाम्या त्रिभुवन-धणी
शिव पहोंता रिषभ चउदश भक्ते, बावीस लह्या शिव मास थीते छट्टे शिव पाम्या वीर वली, कार्तिक वदी अमावस्या निर्मली
(१) आगामी भावी भाव कह्य', दीवाली कल्पे जेह लह्या । पुण्य पाप फल अज्झयणे कह्या, सवी तहत्ति करी ने सद्दया १३॥
सवी देव मिली उद्योत करे, परभाते गौतम ज्ञान वरे । 'ज्ञानविमल' सदगुण विस्तरे, जिनशासनमां जयकार करे।४।
[ क्रोध की सज्झाय ।] कडवां फल छे क्रोधना, ज्ञानी एम बोले । रीसतणो रस जाणीए, हलाहल तोले । क. ॥१॥
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